Sunday, April 03, 2011

वो में थी या कोई और?

वो एक चंचल लड़की
हिरणी से चलती उछलती
उसकी वो वो उन्मुक्त हंसी
होगी क्या झंकृत कभी
वो में थी या कोई और?

अब तो मन में है चिर उदासी

हर तरफ नीरवता विराजी
हर आत के बाद है सवेरा...कहते सभी
क्या मेरे जीवन में होगी वो सुबह कभी?

देखा था एक सपना

प्यार करने वाला हो कोई अपना
पर कहता है मन तभी...
अरे पगली टूटते हैं सपने सभी

फिर क्यों ऐसी उत्कंठता जो कभी न पूरी हो?

ऐसी अभिलाषा जो सदैव अधूरी हो?
क्या ये ही परिणीती है मेरे अस्तित्व की?
यूँ ही रहेगी मेरी आत्मा रिक्त सी?

आ जाओ, कि तुम्हारी प्रतीक्षा में अभी भी रत हूँ

में चिर विरहणी सी....